धीरज प्रताप मित्र, विशाल प्रताप मित्र
भारत जैसे बहुस्तरीय-बहुजातीय समाज में जातिगत जनगणना न केवल एक सांख्यिकीय प्रक्रिया है अपितु सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व एवं ऐतिहासिक पुनर्परिभाषा का एक केंद्रीय औजार है। प्रस्तुत लेख डिजिटल युग में जातिगत जनगणना की आवश्यकता, इसकी जटिलताओं तथा इससे सम्बद्ध भविष्य की संभावनाओं की समाजशास्त्रीय व्याख्या करता है। मिशेल फूको, एंथनी गिडेन्स, युर्गेन हैबरमास तथा बाबासाहब अम्बेडकर जैसे विचारकों के सैद्धांतिक दृष्टिकोणों के माध्यम से यह विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है कि कैसे डेटा, सत्ता तथा अस्मिता का अंतर्संबंध सामाजिक संरचनाओं को प्रभावित करता है। यह दर्शाता है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर दलित-बहुजन समुदायों की सक्रियता एक नए प्रकार के आत्मकथात्मक प्रतिरोध एवं अस्मिता पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है। वर्तमान में जातिगत आंकड़े केवल राज्य की उपयुक्त नीतियों हेतु ही आवश्यक नहीं, अपितु सामाजिक दृश्यता, वैधता, संसाधनों के न्यायोचित वितरण हेतु भी अनिवार्य हो चुके हैं। यद्यपि कि मंडल आयोग के बाद की राजनीति, पहचानवाद का उभार, डिजिटल स्पेस में व्याप्त विषमताएँ आदि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को जटिल बनाती हैं। प्रस्तुत लेख निष्कर्षतः यह प्रतिपादित करता है कि यदि जातिगत जनगणना को वैज्ञानिक, पारदर्शी एवं सामाजिक उत्तरदायित्व से संपन्न किया जाए तो यह भारतीय लोकतंत्र को अधिक समावेशी, न्यायपूर्ण, उत्तरदायी रूप में पुनर्गठित करने की दिशा में निर्णायक हो सकती है।
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